बृहस्पतिवार व्रत कथा
बृहस्पतिवार व्रत कथा ।। श्री गणेशाय नमः ।।
बृहस्पतिवार व्रत कथा
(सरल हिन्दी भाषा में)
व्रत विधि, कथा एवं आरती सहित
व्रत करने की विधि एवं महत्व
बृहस्पतिवार के व्रत में केले का पूजन करना चाहिए। कथा और पूजन के समय वचन, कर्म और मन से शुद्ध होकर इच्छा पूर्ति के लिए बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करनी चाहिए । मेरी मनोकामनाओं को बृहस्पतिदेव अवश्य पूर्ण करेंगे, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास रखना चाहिए ।
दिन में एक ही समय भोजन करना चाहिए।
पीले चने की दाल आदि का भोजन करें। पूजन के बाद श्रद्धापूर्वक एवं प्रेमपूर्वक गुरु महाराज की कथा सुननी चाहिए। इस व्रत को करने से मनोवांछित फल मिलते हैं और बृहस्पति महाराज प्रसन्न होते हैं। धन, विद्या, पुत्र तथा मन की सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। परिवार में सुख तथा शान्ति रहती है, इसलिए यह व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ और अति फलदायक है ।
बृहस्पतिवार व्रत का महत्व
धन, यश, संतान, दाम्पत्य सुख एवं ग्रह शांति के लिए
।। बृहस्पति मंत्रम् ।।
ॐ बृहस्पते अति यदर्थो अर्हाद्युमद्विभाति क्रमतुमज्जनेषु । यद्दीदच्छवस ऋतुप्रजातस्तदस्मांसु द्रविणं धेहि चित्रम् ।।
।। बृहस्पति-नमस्कार मंत्रः ।।
देवानां च ऋषीणां च बृहस्पति कांचनसंनिभम्।
बुद्विभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम् ।।
ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरवे नमः ।
ॐ झां झीं झौं गुरवे नमः ।
ॐ बृं बृहस्पतये नमः ।
ॐ ऐं क्लीं बृहस्पतये नमः ।
बृहस्पतिवार व्रत का महत्व
बृहस्पतिवार व्रत की कथा प्रारंभ
बहुत समय पहले की बात है, भारत में एक राजा राज्य करता था। वह अति प्रतापी एवं दानी था । वह प्रतिदिन मन्दिर में भग्वद्दर्शन करने जाता था और गुरु और ब्राह्मण की सेवा भी किया करता था। उसके द्वार से कोई भी याचक निराश नहीं लौटता था। वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता और पूजन करता था। हर दिन गरीबों की मदद करता था। परन्तु, यह सब बातें उसकी रानी पसन्द नहीं करती थी। वह न व्रत करती थी और न किसी को एक भी पैसा दान रूप में देती थी। वह राजा को भी ऐसा करने से रोकती थी ।
एक समय की बात है। जब राजा शिकार खेलने वन को चले गये थे। महल में सिर्फ रानी और दासी थी। उस समय गुरु बृहस्पति साधु का रूप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा माँगने आये । साधु ने रानी से भिक्षा माँगी तो वह कहने लगी- “हे साधु महाराज ! मैं इस दान-पुण्य से तंग आ गई हूँ। इस काम के लिए तो मेरे पतिदेव ही बहुत हैं। अब आप ऐसी कृपा करें कि सारा धन नष्ट हो जाये तथा मैं आराम से रह सकूँ ।”
साधु का वेष रखे बृहस्पतिदेव ने कहा- “हे देवी! तुम अति विचित्र हो । सन्तान और धन से कोई दुःखी नहीं होता, सभी इसे चाहते हैं। पापी भी पुत्र और धन की इच्छा करता है । अगर, तुम्हारे पास धन बहुत है तो भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, ब्राह्मणों को दान दो, प्याऊ लगवाओ, धर्मशालाऐं बनवाओ, कुंआ तालाब, बावड़ी, बाग-बगीचे आदि बनवाओ तथा निर्धनों की कुंआरी कन्याओं का विवाह कराओ, साथ ही यज्ञादि करो। इस प्रकार के कर्मों से आपके कुल का एवं आपका नाम लोक-परलोक में प्रसिद्ध होगा एवं स्वर्ग की प्राप्ति होगी ।”
किन्तु, वह मूर्ख रानी साधु की इन बातों से खुश नहीं हुई। वह बोली- “हे साधु महाराज ! मुझे ऐसी सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं जो मेरे काम न आये तथा जिसको मैं अन्य लोगों को दान दूँ, जिसको रखने और सँभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये।”
साधु ने रानी को समझाने का बहुत प्रयत्न किया; परन्तु, रानी अपनी बात पर अडिग रही तब साधु ने कहा- “हे देवी! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है, तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम वैसा ही करना । बृहस्पतिवार के दिन घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से कहना कि वह भी हजामत करवाये, भोजन में माँस- मदिरा खाना, कपड़े धोबी के यहाँ धुलने डालना। इस तरह सात बृहस्पतिवार निरन्तर करने से तुम्हारा सब धन नष्ट हो जायेगा ।” ऐसा कहकर साधु रूपी बृहस्पतिदेव अन्तर्ध्यान हो गये ।
बृहस्पतिवार व्रत की कथा
रानी ने साधु के कहे अनुसार ही सात बृहस्पतिवार वैसा ही करने का विचार किया। साधु के बताये अनुसार करते हुए उसे केवल तीन बृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन- सम्पत्ति नष्ट हो गई । कहे अनुसार ही करने से भरपेट भोजन के लिए भी दोनों समय परिवार तरसने लगा तथा सांसारिक भोगों से दुःखी रहने लगा।
इस प्रकार के अभावग्रस्त जीवन से तंग आकर एक बार राजा रानी से कहने लगा कि हे रानी! तुम यहाँ पर रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहाँ पर मुझे सभी मनुष्य जानते हैं, इसलिए मैं यहाँ कोई कार्य नहीं कर सकता । देश चोरी, परदेश भीख के समान है। ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया। वहाँ जंगल में लकड़ी काटकर लाता और उन्हें शहर में बेचकर जीवन यापन करने लगा ।
राजा के जाने के पश्चात् इधर उसके बिना रानी और दासी दुःखी रहने लगीं। किसी दिन भोजन मिलता तो किसी दिन जल पीकर ही रहना पड़ता था। एक समय रानी और दासी को सात दिन बिना भोजन के व्यतीत हो गये तो रानी अपनी दासी से बोली- “हे दासी ! यहाँ समीप ही के नगर में मेरी बहन रहती है, जो बहुत धनवान है। तू उसके पास जा और वहाँ से पाँच सेर बेझर माँगकर ले आ, जिससे कुछ समय के लिए गुजर-बसर हो जायेगी ।
दासी उसकी बहन के पास गई। बृहस्पतिवार का दिन था। रानी की बहन उस समय ध्यान मग्न होकर पूजा कर रही थी। दासी ने रानी की बहन से कहा- “हे रानी ! मुझे आपके पास आपकी बहन ने भेजा है। मुझे पाँच सेर बेझर दे दो।” दासी ने अपनी बात अनेक बार कही परन्तु रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया क्योंकि वह उस समय बृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी।रानी की बहन से जब दासी को कोई अपेक्षित उत्तर नहीं मिला तो वह अति दुःखी हुई ।
उसे क्रोध भी बहुत आया। लौटकर वह रानी से बोली- “हे रानी! आपकी बहन बहुत धनी स्त्री है परन्तु वह अति घमण्डी भी है। वह छोटे लोगों से बात भी नहीं करती। पाँच सेर बेझर देने के लिये मैंने उससे बहुत बार कहा; परन्तु, उसने कोई उत्तर नहीं दिया। इस प्रकार मुझे निराश एवं खाली हाथ लौटना पड़ा।” रानी बोली- “हे दासी ! इसमें मेरी बहन का किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है। जब बुरे दिन आते हैं, तब कोई सहारा नहीं देता। अपने पराये हो जाते हैं। अच्छे-बुरे का ज्ञान विपत्ति में ही होता है। जो ईश्वर की इच्छा होगी, वही होगा। यह सब हमारे भाग्य का दोष है।”
उधर पूजा समाप्त होने के पश्चात् रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु, मैंने उसे कोई उत्तर नहीं दिया, इससे वह बहुत दुःखी हुई होगी। कथा सुनकर तथा विष्णु भगवान का प्रसाद ग्रहण कर वह अपनी बहन के घर आई तथा बोली- “हे बहन ! मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी।
तुम्हारी दासी आई; परन्तु, कथा समाप्त होने से पूर्व न उठते हैं और न ही बोलते हैं, इसलिए मैं नहीं बोली। बताओ दासी किस कार्य से मेरे पास गई थी?” रानी बोली- “बहन ! हमारे घर अनाज नहीं था तथा राजा परदेश गये हुए हैं, वैसे तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। इस कारण मैंने दासी को तुम्हारे पास पाँच सेर बेझर लेने के लिए भेजा था।”
इस पर रानी की बहन बोली- “हे बहन ! बृहस्पति भगवान् सबको मनोवांछित फल देते हैं। देखो, शायद तुम्हारे घर में किसी कोने में अनाज रखा हो।” यह सुनकर रानी की बहन की बातों से विस्मित होकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा बेझर का भरा मिल गया। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उसके अनुसार घर का एक-एक बर्तन अन्न से खाली था । उसने बाहर आकर रानी को सारा वृतान्त सुनाया। दासी अपनी रानी से कहने लगी- “हे रानी ! देखो, वैसे भी हमको जब अन्न नहीं मिलता तो वह भी व्रत समान ही है। अगर, इनसे व्रत की विधि तथा कथा पूछ ली जाये तो बृहस्पतिवार का व्रत हम भी किया करेंगे।”
बृहस्पतिवार व्रत की कथा
और फिर दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत, पूजन विधि एवं नियमों के बारे में विस्तार से पूछा। उन्होंने बताया-“जो बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन कर दीपक जलाता है, पीला भोजन करता है, पीले वस्त्र धारण करता है तथा प्रेमपूर्वक बृहस्पति भगवान की कथा सुनता है। इस प्रकार करने से गुरु भगवान उस भक्त से प्रसन्न होते हैं। धन, अन्न, पुत्र देते हैं। मनोवांछित मनोकामना पूर्ण करते हैं।” व्रत एवं पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट गई ।
तत्पश्चात्, रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि बृहस्पतिदेव भगवान का व्रत एवं पूजन जरूर करेंगे । सात दिन पश्चात् जब बृहस्पतिवार आया तो दोनों ने व्रत रखा। दासी घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाई और उसकी दाल बनाकर केले की जड़ में विष्णु भगवान का पूजन किया।
अब भोजन पीला कहाँ से आये ? यह सोचकर दोनों बड़ी दुःखी हुईं; परन्तु, उन्होंने व्रत किया था, इसलिए बृहस्पतिदेव भगवान उनसे प्रसन्न थे । एक साधारण व्यक्ति के रूप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आये और दासी को देकर बोले- “हे दासी !
यह भोजन तुम्हारे और रानी के लिए है। तुम दोनों ही इसे ग्रहण करना ।” दासी भोजन पाकर अति प्रसन्न हुई और रानी से बोली- “हे रानी भोजन कर लो।” रानी को भोजन के विषय में कुछ पता नहीं था, इसलिए वह दासी से बोली- “जा तू ही भोजन कर ! क्यों तू व्यर्थ में हमारी हँसी उड़ाती है।
“दासी बोली- “हे रानी, एक व्यक्ति भोजन दे गया है।” रानी बोली- “वह भोजन तेरे लिए ही दे गया है, इसलिए तू ही भोजन कर ।” दासी ने कहा- “हे रानी, वह व्यक्ति हम दोनों के लिए ही दो थालों में भोजन देकर गया है। अतः मैं और आप दोनों ही साथ-साथ भोजन करेंगी।” दोनों ने गुरु भगवान को धन्यवाद एवं नमस्कार कर भोजन प्रारम्भ किया ।
उसके बाद से दोनों प्रत्येक बृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगीं । बृहस्पति भगवान की कृपा से उन दोनों की भोजन एवं धन की कमी दूर हो गई। परन्तु, रानी फिर पुनः पहली प्रकार से आलस्य करने लगी।
तब दासी ने कहा- “हे रानी ! आप पहले भी इसी प्रकार आलस्य करती थीं, आपको धन सँभालने एवं दान देने में कष्ट होता था, इसी कारण सभी धन नष्ट हो गया और हमारी ऐसी दुर्दशा हो गई। अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो आपको फिर आलस्य हो रहा है।
बड़े कष्टों के बाद आपने यह धन पाया है। इसलिए, आपको दान-पुण्य करना चाहिए, भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, ब्राह्मणों को दान दो, प्याऊ लगवाओ, कुंआ-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण करवाओ, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर दान दो, धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे आपके कुल का सम्मान बढ़े तथा आपको स्वर्ग प्राप्त हो एवं आपके पितृ प्रसन्न हों ।” दासी की बात मानकर रानी ने इसी प्रकार के सदकर्म करने प्रारम्भ किये। इस प्रकार करने से उसका काफी यश फैलने लगा ।
बृहस्पतिवार व्रत की कथा
कुछ दिनों के बाद एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगे, उनकी कोई खोज खबर नहीं है। रानी राजा की कोई खबर न पाकर उदास रहने लगी। गुरु भगवान से उन्होंने प्रार्थना की और भगवान ने रात्रि में राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- “हे राजा उठ ! तेरी रानी तुझको याद करती है। अब अपने देश लौट जा ।” राजा प्रातःकाल उठा। वह सोचने लगा कि मैं किस प्रकार रानी के पास खाली हाथ जाऊँगा । मेरे पास तो कुछ भी नहीं, स्त्री जाति खाने और पहनने की ही साथी होती है। पर, प्रभु की आज्ञा मानकर वह अपने नगर चलने को तैयार हुआ ।
परदेश में राजा बहुत दुःखी रहने लगा था। प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुःखी जीवन को बड़ी कठिनाई से व्यतीत करता था । एक दिन राजा दुःखी होकर अपने पुराने दिनों की याद करके रोने लगा।
उस जंगल में बृहस्पतिदेव एक साधु का रूप धारण करके आये और राजा से बोले- “हे लकड़हारे ! तुम इस बियावान जंगल में किस चिन्ता में बैठे हो, मुझे बतलाओ।” यह सुनकर राजा की आँखों में आँसू भर आये और वह साधु को प्रणाम करके बोला- “हे प्रभो ! आप सब कुछ जानने वाले हैं।
” इतना कहकर राजा ने साधु को अपनी समस्त व्यथा सुना दी। तब साधु रूप में गुरु भगवान राजा से बोले- “हे राजन् ! तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिवार के दिन बृहस्पति देव का अपमान किया था जिसके कारण तुम्हारी यह दुर्दशा हुई। अब तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करो, भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन प्रदान करेंगे। देखो, तुम्हारी पत्नी ने बृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है। अब तुम भी बृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो फिर कथा कहो या सुनो ! भगवान् तुम्हारी सभी इच्छाओं की पूर्ति करेंगे ।”
साधु के वचन सुनकर राजा बोला- “हे प्रभो ! मुझे लकड़ी बेचने के पश्चात् इतना पैसा भी नहीं बचता कि भोजन करने के उपरान्त कुछ भी बचा सकूँ। मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल एवं व्यथित देखा है। मेरे पास कोई साधन नहीं जिससे उसका समाचार भी जान सकूँ। इसके अतिरिक्त मैं बृहस्पतिदेव की कथा भी नहीं जानता हूँ जिसे कह या सुनकर मैं व्रत धारण कर भगवान बृहस्पतिदेव का पूजन कर सकूँ ।”
साधु ने कहा- “हे राजा ! तुम किसी बात की चिन्ता न करो। बृहस्पतिवार के दिन तुम नित्य की भाँति लकड़ियाँ लेकर शहर में जाओ। तुम्हें रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा । जिससे तुम भली-भाँति भोजन कर लोगे तथा गुड़ एवं चने का प्रसाद खरीदकर बृहस्पतिदेव की पूजा भी कर सकते हो । बृहस्पतिवार की कहानी इस प्रकार से है-
बृहस्पतिदेव की कहानी
प्राचीन समय में एक बहुत ही निर्धन ब्राह्मण था। उसके कोई सन्तान नहीं थी । ब्राह्मण नित्य पूजा-पाठ करता। ब्राह्मण स्वभाव से दयालु तथा धार्मिक विचारों वाला व्यक्ति था । परन्तु, उसकी पत्नी बहुत मलिनता के साथ रहती थी। वह न तो स्नान करती थी और न किसी देवता का पूजन करती। सुबह उठते ही सर्वप्रथम भोजन करती, बाद में घर के अन्य कार्य करती। अपनी पत्नी की ऐसी आदत के कारण ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी रहते थे। वः अपनी पत्नी को बहुत समझाते; किन्तु, उसका कोई परिणाम न निकलता ।
भगवान् की कृपा से ब्राह्मण की स्त्री के कन्या उत्पन्न हुई। वह कन्या ब्राह्मण के घर में बड़ी होने लगी। वह बालिका प्रातःकाल ही स्नान करके भगवान विष्णु का जप करती । बृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी। पूजा-पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरकर ले जाती और पाठशाला जाने के रास्ते में डालती जाती। भगवान बृहस्पति की कृपा से वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो लौटते समय उनको बीनकर घर ले आती ।
एक दिन वह बालिका सूप से उन सोने के जौ फटककर साफ कर रही थी, तभी उसकी माँ ने उसे देख लिया और कहा- “हे बेटी ! सोने के जौ को फटकने के लिए सूप भी सोने का ही होना चाहिए।”
दूसरे दिन बृहस्पतिवार था। कन्या ने व्रत रखा और भगवान बृहस्पति से प्रार्थना करके कहा- “हे प्रभो ! यदि मैंने सच्चे मन से श्रद्धापूर्वक आपका पूजन एवं व्रत किया हो तो कृपया मुझे सोने का सूप दे दो।”
बृहस्पति देव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। नित्य की भाँति वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई । पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो बृहस्पति भगवान की कृपा से उसे सोने का सूप प्राप्त हुआ। उस सोने के सूप को वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी। परन्तु, उसकी माँ का आचरण वैसा ही रहा ।
एक दिन, वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी। उसी समय अचानक उस नगर का राजकुमार वहाँ से होकर निकला। कन्या के रूप एवं कार्य को देखकर राजकुमार कन्या पर मोहित हो गया। राजमहल लौटकर राजकुमार अन्न तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया । राजा को जब अपने पुत्र द्वारा अन्न-जल त्यागने का समाचार प्राप्त हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह राजकुमार के पास आये और बोले- “हे बेटा! तुम्हें किस बात का दुःख है? किसी ने तुम्हारा अपमान किया है अथवा कोई और कारण है, तो मुझे बताओ, मैं वही करूँगा जिससे तुम प्रसन्न होगे।” राजकुमार ने अपने पिता की बातें सुनीं तो वह बोला-
“आपकी कृपा से मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं है, किसी ने मेरा अपमान भी नहीं किया है, परन्तु, मैं उस कन्या के साथ विवाह करना चाहता हूँ जो सोने के सूप में सोने के जौ फटक रही थी ।” यह सुनकर राजा आश्चर्य में पड़ गया और बोला- “हे राजकुमार ! इस तरह की कन्या का पता तुम लगाकर मुझे बताओ। मैं तुम्हारा विवाह उसके साथ अवश्य ही करवा दूँगा ।” राजकुमार ने प्रसन्न होकर राजा को उस ब्राह्मण कन्या के घर का पता बताया। राजा के आदेश पर मंत्री उस कन्या के घर गया और राजा का आदेश ब्राह्मण को कह सुनाया। कुछ ही दिन बाद ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ हो गया ।
घर से कन्या के विदा होते ही उस ब्राह्मण के घर में पहले की तरह निर्धनता वास करने लगी। अब भोजन के लिए अनाज भी बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी बेटी से मिलने गये। बेटी पिता की ऐसी अवस्था को देखकर अत्यन्त दुःखी हुई और उसने अपनी माँ का समाचार पूछा। ब्राह्मण ने पुत्री को सभी हाल कह सुनाया।
पुत्री ने अपने पिता को बहुत-सा धन देकर विदा कर दिया। इस प्रकार ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत हुआ । लेकिन, धन समाप्त होने के बाद स्थिति पूर्ववत् हो गई। ब्राह्मण फिर अपनी पुत्री के यहाँ गया और उससे सभी हाल कह सुनाया। पुत्री बोली- “हे पिताजी ! आप अपने साथ माताजी को यहाँ लिवा लाओ। मैं उन्हें वह विधि बता दूँगी जिससे दरिद्रता दूर हो जायेगी ।”
ब्राह्मण देवता अपनी पत्नी को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुँचे तो पुत्री अपनी माँ को समझाने लगी- “हे माँ ! तुम सुबह उठकर सर्वप्रथम स्नानादि करके भगवान् विष्णु का पूजन किया करो तो सब निर्धनता दूर हो जायेगी।” परन्तु, उसकी माँ ने उसकी एक न मानी । वह सुबह उठकर सर्वप्रथम अपनी पुत्री के घर में बचा झूठन खा लेती थी ।
एक दिन उसकी बेटी को अपनी माँ पर बहुत गुस्सा आया। उसने उस रात एक कोठरी में खाने का सारा सामान निकालकर अपनी माँ को उसमें बन्द कर दिया। प्रातः कोठरी से अपनी माँ को निकालकर तथा स्नानादि कराकर पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्धि ठीक हो गई । इसके बाद वह प्रतिदिन पूजा-पाठ करती और प्रत्येक बृहस्पतिवार को व्रत भी रखने लगी । इस व्रत के प्रभाव से उसकी माँ भी अत्यन्त धनवान तथा पुत्रवती हो गई और बृहस्पति देवता की कृपा से वृद्धावस्था में मृत्यु को प्राप्त कर स्वर्ग को गई।
वह ब्राह्मण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ। इस प्रकार कहानी कहकर साधु देवता वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये। धीरे-धीरे छः दिन का समय बीत गया तथा बृहस्पतिवार का दिन आ गया । लकड़हारा रूपी राजा जंगल से लकड़ी काटकर किसी शहर में बेचने गया। आज उसे और दिनों से अधिक धन मिला। राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर भगवान विष्णु का पूजन किया तथा बृहस्पतिवार का व्रत किया।
उस दिन से उसके सभी कष्ट दूर हो गये । परन्तु, अगले बृहस्पतिवार को वह व्रत करना भूल गया। इसी कारण बृहस्पति भगवान उससे रुष्ट हो गये। उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि कोई भी मनुष्य अपने घर में भोजन न बनाये और आग भी न जलाये। सब लोग मेरे यहाँ भोजन करने आयें। इस आज्ञा को जो नहीं मानेगा, उसको सूली पर लटका दिया जायेगा ।
राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी निवासी राजा के भोज में सम्मिलित होने गये; परन्तु, लकड़हारा कुछ कुछ विलम्ब से पहुँचा, इसलिए राजा उसको भोजन कराने अपने साथ महल में ले गये । जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी जिस पर उसका नौलखा हार लटका हुआ था। उसे खूंटी पर हार लटका दिखाई नहीं दिया । रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है। उसी समय रानी की जिद पर राजा ने सैनिक बुलवाकर लकड़हारे को जेल में डलवा दिया ।
जेलखाने में बन्द वह लकड़हारा बहुत दुःखी होकर विचार करने लगा कि न जाने कौन-से पूर्वजन्म के कुकर्म से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है। जेल में बन्द लकड़हारा भगवान वृहस्पति को याद करने लगा । तत्काल बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रगट हो गये और उसकी दशा देखकर कहने लगे-“अरे मूर्ख ! तू बृहस्पतिवार को बृहस्पति देव की कथा एवं व्रत करना भूल गया, इसी कारण तुझे दुःख प्राप्त हुआ है। अब किसी प्रकार की चिन्ता मत कर ।
बृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे पचास पैसे पड़े मिलेंगे, तुम उन पैसों से प्रसाद मँगाना, भगवान बृहस्पति का पूजन एवं कथा कहना। कथा का प्रसाद स्वयं भी ग्रहण करना तथा दूसरों को भी कराना। इस प्रकार करने से तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे ।” अगले बृहस्पतिवार राजा को जेल के द्वार पर पैसे मिले। राजा ने पूजा का सामान मँगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा।
उसी रात बृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को सपने में दर्शन देकर कहा- “हे राजा ! तूने जिस आदमी को जेलखाने में बन्द कर रखा है, वह निर्दोष है। वह राजा है, उसे छोड़ दो। रानी का नौलखा हार उसी खूंटी पर लटका हुआ है। अगर तू ऐसा नहीं करेगा तो मैं तेरे राज्य को नष्ट कर दूँगा।” राजा सुबह उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर उससे क्षमा-याचना की तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंटकर उसे विदा किया ।
बृहस्पतिदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया। जब वह नगर के निकट पहुँचा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ। वहाँ पहले से अधिक तालाब, बाग और कुएं तथा बहुत- सी धर्मशालायें, मन्दिर आदि बने हुए थे।
राजा ने जब नगरवासियों से पूछा कि यह बाग, तालाब, धर्मशालायें एवं कुंए किसके द्वारा बनवाये गये हैं, तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्वारा बनवाये गये हैं।
राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और क्रोध भी बहुत आया। जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे हैं तो उसने दासी से कहा- “हे दासी ! देख, राजा हमें अति दीन अवस्था में छोड़ गये थे। वह हमारी ऐसी हालत देखकर कहीं द्वार से ही लौट न जायें, इसलिए तू द्वार पर खड़ी हो जा।” रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई। जब राजा आये तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई ।
तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली तथा रानी से पूछा- “बताओ, इतना धन तुम्हें कैसे और किस प्रकार प्राप्त हुआ है। तब रानी ने बताया कि हमें यह सब धन बृहस्पतिदेव के व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है। अब राजा ने निश्चय किया कि सात दिन बाद तो सभी बृहस्पतिदेव का पूजन करते हैं; परन्तु, मैं प्रतिदिन दिन में तीन बार कथा कहा करूंगा तथा नित्य व्रत किया करूँगा । अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बँधी रहती तथा दिन में तीन बार वह कथा कहता।
ऐसे ही एक दिन राजा ने विचार किया कि चलो, अपनी बहन के यहाँ हो आऊँ। ऐसा निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार होकर अपनी बहन के यहाँ चल दिया। मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिए जा रहे हैं। उन्हें रोककर वह कहने लगा- “अरे भाइयो ! कुछ देर मेरी बृहस्पति की कथा सुन लो। वे बोले, “लो हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है। परन्तु, कुछ आदमी बोले-“अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे। राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरू कर दी। जब कथा आधी हो गई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो “राम-राम” करके वह मुर्दा खड़ा हो गया ।
राजा आगे चला। उसे चलते-चलते शाम हो गई। आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला । राजा उससे बोला- “अरे भइया ! तुम मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो।” किसान बोला- “जब तक मैं तेरी कथा सुनूँगा, तब तक चार हरैया जोत लूँगा। जाओ भड़या, तुम अपनी कथा किसी और को सुनाना।” राजा आगे चलने लगा।
राजा के हटते ही किसान के बैल पछाड़ खाकर गिर गये और किसान के पेट में बहुत तेज दर्द होने लगा। उसी समय किसान की माँ रोटी लेकर आई। उसने जब यह देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा । बेटे ने सारा हाल बता दिया। किसान की माँ दौड़ी-दौड़ी घोड़े पर सवार राजा के पास गईऔर उससे बोली-“मैं तेरी कथा सुनूँगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर हीं चलकर कहना ।
” राजा ने लौटकर किसान के खेत पर जाकर कथा कही, जिसे सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया ।आगे चलकर राजा अपनी बहन के घर पहुँच गया। बहन ने भाई की खूब आवभगत की । दूसरे दिन सुबह राजा जागा तो उसने देखा कि सब लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से जब पूछा कि ऐसा कोई मनुष्य है जिसने भोजन नहीं किया हो, और जो मेरी बृहस्पतिवार की कथा का श्रवण कर ले तो बहन बोली- “हे भैया! यह देश ऐसा ही है। यहाँ के लोग पहले भोजन करते हैं, बाद में कोई अन्य काम करते हैं। अगर पड़ोस में कोई हो तो देख आती हूँ।
” ऐसा कहकर बहन चली गई परन्तु, उसे कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो। वह एक कुम्हार के घर गई जिसका लड़का बीमार था। उसे यह भी पता चला कि उसके यहाँ तीन दिन से किसी ने भोजन नहीं किया है। राजा की बहन ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से आग्रह किया तो वह तैयार हो गया । राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा कही जिसको सुनकर कुम्हार का लड़का ठीक हो गया। अब तो राजा की हर ओर प्रशंसा होने लगी ।कुछ दिन बाद एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा- “हे बहन ! मैं अपने घर जाऊँगा, तुम भी तैयार हो जाओ ।
” राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा माँगी। सास बोली- “चली जा, परन्तु अपने लड़कों को यहीं छोड़ जाना क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है।” बहन ने भाई से कहा- “हे भइया, मैं तो चलूँगी परन्तु कोई बालक नहीं जायेगा ।” राजा ने कहा- “जब कोई बालक साथ नहीं चलेगा, तब तुम ही क्या करोगी ?” दुःखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया। राजा अपनी रानी से बोला- “हम निरवंशी हैं, हमारा मुँह देखने का भी धर्म नहीं है।” वह उदाास होकर बिना भोजन किये शैय्या पर लेट गया। रानी बोली “हे प्रभो! भगवान बृहस्पति ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान भी अवश्य देंगे।
” उसी रात बृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- “हे राजा उठ ! सभी सोच त्याग दे, तेरी रानी गर्भवती है।” राजा को यह जानकर अति प्रसन्नता हुई। नवें महीने रानी के गर्भ से एक सुन्दर पुत्र रूपी रत्न पैदा हुआ। तब राजा बोला- “हे रानी ! स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती । जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना।” रानी ने ‘हाँ’ कर दी। जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह अति प्रसन्न हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहाँ आई ।
तभी रानी ने कहा- “घोड़ा चढ़कर नहीं आई, गधा चढ़ी आई।” राजा की बहन बोली- “भाभी ! मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हें औलाद कैसे मिलती ?”भगवान बृहस्पति ऐसे ही हैं, जैसी जिसके मन में कामनायें हैं, सभी को पूर्ण कर मनोवांछित फल देते हैं। जो श्रद्धापूर्वक बृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, बृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामना पूर्ण करते हैं ।
बृहस्पतिदेव उनकी सदैव रक्षा करते हैं, जो श्रद्धा एवं सम्पूर्ण आदरभाव से बृहस्पतिदेव का पूजन एवं सच्चे दिल से व्रत करते हैं, उनकी सभी मनोकामनायें पूर्ण होती हैं। सच्चे मन एवं हृदय से रानी और राजा ने बृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, उनकी सभी इच्छाएँ बृहस्पतिदेव ने पूरी कीं । इसलिए, सबको कथा कहने अथवा सुनने के बाद बृहस्पति भगवान का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए तथा सच्चे मन एवं भावना से भगवान बृहस्पति का ध्यान करते हुए सदा उनकी जय-जयकार करनी चाहिए ।
आरती बृहस्पतिवार की
ॐ जय बृहस्पति देवा, स्वामी जय बृहस्पति देवा। छिन-छिन भोग लगाएँ कदली फल मेवा। ॐ जय.. तुम पूर्ण परमात्मा तुम अन्तर्यामी। जगतपिता जगदीश्वर तुम सबके स्वामी। ॐ जय… चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता। सकल मनोरथ दायक, कृषां करो भर्ता। ॐ जय… तन मन धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े। प्रभु प्रगट तब होकर, आकर द्वार खड़े। ॐ जय… दीन दयाल दयानिधि भक्तन हितकारी। पाप दोष सब हर्ता, भव बन्धन हारी। ॐ जय… सकल मनोरथ दायक, सब संशय हारी। विषय विकार मिटाओ, सन्तन सुखकारी। ॐ जय… बृहस्पति जी की आरती जो प्रेम सहित गावे। जेष्ठानन्द कृपा से निश्चय फल पावे। ॐ जय…
T. Yuvraj Singh is a dedicated journalist passionate about delivering the latest news and insightful analysis. With a strong background in media, he aims to engage readers through accurate and thought-provoking stories. When not writing, Yuvraj enjoys reading and exploring global affairs. Follow him for fresh perspectives on current events.