द्वारका: भगवान श्रीकृष्ण की डूबी हुई नगरी – एक पौराणिक सत्य या ऐतिहासिक रहस्य?

dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari“समुद्र की लहरों के नीचे एक ऐसी नगरी सो रही है, जिसे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था।”
यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि भारत के इतिहास और पुराणों से जुड़ी सबसे रहस्यमयी और रोमांचक गाथा है – द्वारका की कहानी।
द्वारका: एक दिव्य नगरी की उत्पत्ति
महाभारत और श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार, द्वारका वो नगरी थी जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद समुद्र किनारे बसाया था। यदुवंशियों की सुरक्षा के लिए उन्होंने एक मजबूत और समृद्ध नगरी बनाई जो हर दृष्टिकोण से अत्याधुनिक थी।

“द्वारका” शब्द का अर्थ है – द्वारों वाला नगर। यह नगरी समुद्र के किनारे ऐसे स्थित थी, जैसे धरती और जल के बीच एक सेतु।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
द्वारका की विशेषताएं – एक प्राचीन ‘smart city’
- 72 द्वार: द्वारका में कुल 72 द्वार थे, जो इसे नाम के अनुरूप बनाते थे।
- सोने, चांदी और कीमती पत्थरों से सजी महलनुमा इमारतें।
- चौड़ी सड़कों और जल निकासी व्यवस्था – आज के modern cities से भी बेहतर।
- सुरक्षा के लिए ऊँची प्राचीरें और समुद्र की ओर एक गुप्त द्वार।
- यह नगरी सिर्फ धार्मिक नहीं थी, बल्कि एक political, cultural और economic powerhouse थी।
श्रीकृष्ण ने मथुरा क्यों छोड़ा और द्वारका क्यों बसाई?
महाभारत काल में मथुरा यदुवंश की राजधानी थी, लेकिन कंस के वध के बाद जरासंध (मगध का राजा) ने श्रीकृष्ण से बदला लेने के लिए मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया।
हर बार श्रीकृष्ण ने युद्ध टालने की नीति अपनाई, क्योंकि मथुरा की जनता निर्दोष थी और निरंतर युद्धों से त्रस्त हो चुकी थी।
जरासंध का बल इतना था कि उसके साथ 23 अक्षौहिणी सेना थी। श्रीकृष्ण और बलराम समझ गए कि सीधे युद्ध में निर्दोष नागरिकों की हानि होगी।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
तब श्रीकृष्ण ने लिया “रणछोड़” रूप
रण छोड़ने का अर्थ कायरता नहीं था, बल्कि रणनीति थी। श्रीकृष्ण ने युद्ध से दूर होकर यदुवंश की रक्षा के लिए समुद्र से भूमि मांगकर एक अद्भुत नगरी बसाई – द्वारका। इसीलिए उन्हें “रणछोड़राय” भी कहा जाता है।


महाभारत और द्वारका का अंत
महाभारत युद्ध के बाद जब श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अपना कार्य पूरा कर चुके थे, उन्होंने यदुवंश के अंत की भविष्यवाणी की थी। श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद, यदुवंशियों में आपसी कलह हुआ, और एक दिन वो एक-दूसरे से ही युद्ध कर बैठे। इसके पश्चात:
“समुद्र की लहरें उठीं, और द्वारका को निगल गईं।”
भागवत पुराण के अनुसार, श्रीकृष्ण के जाने के बाद द्वारका समुद्र में समा गई। कहते हैं कि उषा के समय लोग जहां मंदिरों और महलों को देखते थे, दोपहर तक वहां सिर्फ नीला जल था।
गांधारी का श्राप: यदुवंश के विनाश की शुरुआत

महाभारत युद्ध के पश्चात, जब श्रीकृष्ण पांडवों को सांत्वना देने के लिए हस्तिनापुर पहुंचे, तब उन्होंने गांधारी से भेंट की। गांधारी, जो अपने सौ पुत्रों की मृत्यु से व्यथित थीं, ने श्रीकृष्ण को युद्ध का दोषी मानते हुए उन्हें श्राप दिया:
“जिस प्रकार मेरे कुल का नाश हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे यदुवंश का भी नाश होगा, और तुम स्वयं यह सब अपनी आँखों से देखोगे।”
गांधारी के इस श्राप ने यदुवंश के विनाश की नींव रखी।
एक दिन साम्ब (श्रीकृष्ण का पुत्र) और कुछ अन्य यदुवंशी युवकों ने कुछ महर्षियों जैसे वशिष्ठ, नारद, दुर्वासा, विश्वामित्र आदि को द्वारका में आते देखा। वे सभी तपस्वी व ज्ञानी थे।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
युवकों ने मज़ाक में साम्ब को महिला का वेष धारण करा दिया और ऋषियों के पास जाकर बोले:
“हे महान ऋषिगण! यह स्त्री गर्भवती है और कह रही है कि आप सब जैसे महान मुनियों को देखकर वह जानना चाहती है कि इसके गर्भ से क्या जन्म लेने वाला है – पुत्र या पुत्री?”
ऋषियों को तुरंत समझ आ गया कि यह मजाक और अपमान है — उन्होंने उसे महर्षियों का मज़ाक उड़ाने और धर्म का उपहास करने का घोर अपराध माना।
तभी महर्षि दुर्वासा, जो अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे, क्रुद्ध हो उठे और बोले:
“अरे मूर्खो! यह कोई साधारण गर्भ नहीं है। इसके गर्भ से एक लोहे की मूसल (गदा) जन्म लेगी, जो तुम्हारे कुल का नाश करेगी।”
यह कहकर ऋषि वहां से चले गए। थोड़ी देर बाद साम्ब के पेट में भयानक पीड़ा हुई और वास्तव में उसके शरीर से एक भारी लोहे की मूसल (iron club) प्रकट हुई। सारे यदुवंशी डर गए।

dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
जब श्रीकृष्ण को यह बात बताई गई, उन्होंने आदेश दिया कि:
- उस मूसल को पीसकर चूर्ण बना दो।
- उसे समुद्र तट पर फैला दो ताकि इसका नाश हो जाए।
इस श्राप से भयभीत होकर, यदुवंशियों ने उस मुसल को चूर्ण करके समुद्र में फेंक दिया, परंतु विधि का विधान कुछ और ही था — वह चूर्ण समुद्र किनारे की घास में समा गया और समुद्र तट पर उग आए सरकंडों में परिवर्तित हो गया, जो बाद में यदुवंशियों के विनाश का कारण बना।
महाभारत के 36 वर्षों बाद, द्वारका में यदुवंशी एक उत्सव के दौरान मद्यपान करके आपस में झगड़ने लगे। उनके हाथों में वही सरकंडे थे, जो समुद्र तट पर उगे थे। इन सरकंडों से हुए संघर्ष में यदुवंशियों ने एक-दूसरे का संहार कर दिया।
बलराम का देहत्याग – अपने कुल के नाश से दुखी होकर बलराम जी समुद्र तट पर ध्यानस्थ होकर समाधि में लीन हो गए। वहीं उन्होंने अपनी शेषनाग की मूल स्वरूप की ओर लौटते हुए पृथ्वी को छोड़ दिया।
श्रीकृष्ण की अंतिम यात्रा – वन की ओर प्रस्थान
बलराम के जाने के बाद, श्रीकृष्ण ने अपने रथ, अस्त्र-शस्त्र और सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर दिया। वे एकान्त में वन की ओर निकल गए और प्रभास क्षेत्र (गुजरात) के समीप एक पीपल वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे।
जब श्रीकृष्ण ध्यानमग्न होकर पीपल वृक्ष के नीचे लेटे थे, उस समय जरा नामक एक शिकारी जंगल में शिकार करने आया। उसे पीपल के पत्तों के बीच से श्रीकृष्ण का पैर दिखाई दिया, जिसे उसने किसी हिरण का मुख समझा।

जरा ने तुरंत तीर चलाया तीर श्रीकृष्ण के पाँव में लगा जरा पास आया तो उसे अपनी भूल का एहसास हुआ और वो रोने लगा, क्षमा माँगने लगा।
श्रीकृष्ण का उत्तर: श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले:
“जरा, यह सब पूर्वनिर्धारित है। तू चिंता मत कर। मैंने भगवान राम के अवतार में बालि को छल से मारा था, अब उसी कर्म का फल मुझे मिल रहा है। यह मेरे अवतरण की पूर्णता है।”
और इसके बाद श्रीकृष्ण ने अपना पार्थिव शरीर त्याग दिया।
Read: अटलांटिस खोई सभ्यता की रहस्यमयी कहानी
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
जरा कौन था?
जरा कोई साधारण शिकारी नहीं था।
एक मान्यता के अनुसार, वह निषादराज का अवतार था और बालि का पुनर्जन्म भी माना जाता है।
श्रीकृष्ण की मृत्यु उनके स्वयं के कर्मों का प्रतीक भी है – रामावतार में उन्होंने जैसे बालि को मारा था, वैसे ही यह मृत्यु उन्हीं के एक कर्म का प्रतिफल है।
श्रीकृष्ण का शरीर कहाँ गया?
श्रीकृष्ण का शरीर वहीं प्रभास क्षेत्र में ही विलीन हुआ। ऐसा माना जाता है कि उनका पार्थिव शरीर स्वयं ब्रह्मा ने अग्नि में अर्पित किया। उनका सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा और रथ आकाश में लुप्त हो गए।
श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद की घटनाएं
अर्जुन श्रीकृष्ण की मृत्यु की सूचना पाकर द्वारका पहुँचे। वहाँ से वे बचे हुए यदुवंशियों की स्त्रियों और बच्चों को लेकर हस्तिनापुर लौटने लगे। जैसे ही उन्होंने द्वारका को छोड़ा, समुद्र ने पूरी नगरी को निगल लिया। आज भी यह कहा जाता है कि द्वारका समुद्र की गहराई में स्थित है।
श्रीकृष्ण की मृत्यु: एक युग का अंत
श्रीकृष्ण की मृत्यु के साथ द्वापर युग का समापन और कलियुग की शुरुआत होती है।
वे केवल एक राजा नहीं थे, वे स्वयं साक्षात विष्णु के अवतार थे, जिनकी लीला का अंत मानवता को एक महत्वपूर्ण शिक्षा देता है – धर्म की रक्षा के लिए अवतरण, और जब धर्म समाप्त हो जाए, तो स्वयं का लोप।
श्रीकृष्ण की मृत्यु एक साधारण घटना नहीं थी। यह पौराणिक इतिहास और आध्यात्मिक दर्शन का वह अध्याय है, जिसमें एक अवतारी पुरुष अपने कर्मों का दायित्व स्वीकार करते हुए संसार का त्याग करते हैं। यह घटना हमें सिखाती है कि जीवन, मृत्यु, पुण्य और पाप – सभी एक चक्र में बंधे हैं, और हर आत्मा को एक दिन लौटना होता है।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
इतिहास या मिथक? – क्या द्वारका सच में डूबी थी?
सदियों तक द्वारका को सिर्फ एक पौराणिक कथा माना जाता रहा। लेकिन जब 1990 के दशक में समुद्र में खोजबीन शुरू हुई, तो सब कुछ बदल गया।
Underwater Discoveries – जब पौराणिक कथा इतिहास बन गई
National Institute of Oceanography और Marine Archaeology Department of India ने गुजरात के ओखा और बेय्ट द्वारका के पास समुद्र में गोताखोरी शुरू की। और जो मिला वो चौंकाने वाला था:
- 6000 साल पुरानी ईंटों से बने स्ट्रक्चर
- पुरानी सड़कों और दीवारों के अवशेष
- पत्थर के स्तंभ, लोहे के औजार, और बर्तन
- एक सुव्यवस्थित नगर की प्लानिंग के प्रमाण
- मानव निर्मित घाट और बंदरगाह – समुद्र के 70 फीट नीचे!
यह सारी खोजें संकेत देती हैं कि श्रीकृष्ण द्वारा बसाई गई द्वारका सिर्फ एक कथा नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक नगरी थी जो समय के साथ समुद्र में समा गई।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
पौराणिक ग्रंथों से मिलता है समर्थन
- महाभारत में उल्लेख है कि भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र से ज़मीन मांगकर द्वारका बसाई थी।
- हरिवंश पुराण में कहा गया है कि द्वारका नगरी में अनेक झीलें, उद्यान और सोने-चांदी से जड़े महल थे।
- स्कंद पुराण और विष्णु पुराण में भी द्वारका का विस्तार से वर्णन मिलता है।
इन ग्रंथों का विवरण आज archaeological खोजों से मेल खाता है – जो इसे और भी विश्वसनीय बनाता है।
द्वारका: रामायण और महाभारत का सेतु
हालांकि द्वारका मुख्य रूप से महाभारत से जुड़ी है, लेकिन कई जानकारों का मानना है कि ये नगरी रामायण काल के बाद अस्तित्व में आई और त्रेता व द्वापर युग का सांस्कृतिक सेतु है।
इसलिए द्वारका सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि तीन युगों का प्रमाण है – त्रेता, द्वापर और कलियुग का।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
आज की द्वारका और डूबी हुई द्वारका
गुजरात में आज जो द्वारका है – वह नयी द्वारका है, जिसे समुद्र किनारे बनाया गया है। लेकिन असली द्वारका, जो श्रीकृष्ण की थी, वह समुद्र के नीचे है।
Dwarka Temple (Jagat Mandir) आज भी समुद्र के किनारे स्थित है – और जब समुद्र का जलस्तर घटता है, तो कई बार समुद्र के नीचे से पुराने पत्थरों के स्तंभ दिख जाते हैं।
द्वारका: एक cinematic और adventurous angle
आप कल्पना कीजिए – एक such city जो:
- सोने-चांदी से सजी हो,
- 72 द्वारों से सुरक्षित हो,
- समुद्र में बसी हो,
- और जिसे स्वयं भगवान ने बसाया हो…
- लेकिन फिर एक दिन समुद्र उसे अपने अंदर समा लेता है!
क्या ये किसी adventure movie से कम है?
इसलिए द्वारका की कहानी सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि romantic, mysterious और deeply philosophical भी है।
dwarka bhagwan shri krishna ki doobi hui nagari
निष्कर्ष: द्वारका – मिथक से इतिहास की यात्रा
द्वारका सिर्फ श्रीकृष्ण की नगरी नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता की भव्यता और गहराई का प्रतीक है। यह हमें बताती है कि भारत का अतीत केवल मंदिरों और राजा-रानियों की कहानियों तक सीमित नहीं है, बल्कि समुद्र की गहराई में भी छिपा है।
“जहाँ धर्म है, वहीं श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहाँ द्वारका है।”
आपका क्या मानना है?
क्या द्वारका सच में श्रीकृष्ण की बसाई नगरी थी या फिर यह सिर्फ एक पौराणिक कल्पना है?
Comment में ज़रूर बताएं और इस blog को शेयर करें।

T. Yuvraj Singh is a dedicated journalist passionate about delivering the latest news and insightful analysis. With a strong background in media, he aims to engage readers through accurate and thought-provoking stories. When not writing, Yuvraj enjoys reading and exploring global affairs. Follow him for fresh perspectives on current events.